भारतीय परिवारों में किसी भयंकर बीमारी या मृत्यु के बारे में चर्चा करना निषेद है. श्री हर्ष रूंगटा इस बात पर जोर देते हैं ,की अपने परिवार या परिजनों से ये चर्चा ना करके हम उनके तरफ अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभा रहे हैं. इस महामारी का हमारे जीवन पर एक बड़ा प्रभाव पड़ रहा है. कुछ लोग जो इससे प्रभावित नहीं हुए हैं,किन्तु उनमें वसीयत और नामांकन जैसे विषयों पर जागरूकता आ गयी है हालांकि, एक क्षेत्र जिस पर अभी भी पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है, वह है आपके विचार कृत्रिम जीवन रखरखाव उपायों के उपयोग के बारे में अग्रिम रूप से जब आप स्वयं वह निर्णय लेने में असमर्थ होते हैं।
भारतीय
मेरे लिए, परिणाम २०१६.में मेरे द्वारा किए गए एक गहन व्यक्तिगत अनुभव द्वारा रेखांकित किए गए थे। मैं अपने पाठकों के साथ अपना दर्दनाक अनुभव बांटना चाहता हूँ,ताकि उन्हें यह एहसास हो, की बदकिस्मती से ,”ऐसा हमारे जैसे लोगों के साथ भी हो सकता है”. अगस्त २०१६ में ,मेरे पिताजी को ८३ की उम्र में एक काफी गंभीर आघात लगा. हमने उन्हे तुरंत अस्पताल में भर्ती किया,जहाँ उनका इलाज शुरू हुआ. डॉक्टर ने हमे उनकी स्तिथी की गंभीरता के बारे में चेताया,की तैयार रहें ,”यह बद से बदतर हो सकती है “. हमे यह जानकारी दी गयी ,अगर इनकी तबियत और ज्यादा ख़राब हुई ,तो इन्हे वेंटीलेटर पर रखना पड़ेगा.
हमे दो बातों पर अपना लिखित सहमति देनी थी. पहली–जरुरत पढ़ी तो वेंटीलेटर का उपयोग. दूसरी–वेंटीलेटर नहीं ..फिर चाहे स्थिती कितनी भी गंभीर क्यों न हो. हमे यह स्पष्ट रूप से बताया गया,की वेंटीलेटर पर रखने की सहमति को परिवर्तित नहीं किया जा सकता. मरीज को तब तक वेंटीलेटर पर रखना होगा ,जब तक उसकी हालत में सुधर नहीं आ जाता..या जब तक उसकी मृत्यु नहीं हो जाती. हमे अपना निर्णय लेने के लिए एक घंटे का समय दिया गया. ये एक घंटा ..मेरे लिए यह ज़िन्दगी का बहुत ही कठिन और पीड़ादायक समय था जब मैने अपने परिवार वालों से इस बारे चर्चा की. पर ये फैसला लेना और भी की कठिन हो गया..जब हम में से किसी को भी यह नहीं पता था. हमारे पिता के विचारों का –जीवन और मृत्यु के महत्वपूर्ण निर्णय के बारे में .
किसी तरह हमने निर्णय लिया,और लिखित रूप में डॉक्टरों तक पहुंचा दिया. भाग्यवश हमारे पिता की हालत में सुधर आया ,और वेंटीलेटर की जरुरत नहीं पड़ी. हमारा परिवार सौभाग्यशाली है ..वो आज भी हमारे साथ हैं और लगातार लड़ रहे हैं. मुझे सबक मिल गया था,मैने मेरी पत्नी और बच्चों के साथ चर्चा की. हम सभी ने अपने-अपने विचारों को , एक दूसरे के समक्ष रक्खा. ताकि वो निर्णय लेने की प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण योगदान रहे ..फिर चाहे आगे चल कर.. किसी को भी ऐसा निर्णय लेना पड़े. एक सलाहकार के रूप में ,मुझसे सलहा लेने वालों को मैने इस सवेदनशील विषय पर अपने विचार दस्तावेज करने के लिए हमेशा प्रोत्साहित किया है. विचारो की अभिवयक्ति और दस्तावेज परिजनों को ऐसे कठिन निर्णय लेने में सहायता करते हैं. कृत्रिम जीवन रखरखाव प्रणाली बेहद महंगी होती है.
यही देखते हुए ,इनका उपयोग काफी समय तक करना पड़ सकता है,बहुत से अस्पताल परिवारवालों (पत्नी,बच्चे,माता-पिता,वगेरा)से लिखित सहमति पर ज़ोर देते हैं. अपने परिजनों की मानसिक स्तिथि सोचिये,जब उन्हे ये निर्णय लेना हो,बिना इस आभास के..की इस बारे में आपके विचार क्या होंगे. निर्णय के वित्तीय परिणामो को एक मिक्स में फेंकने पर आपको पता चलेगा..ऐसा निर्णय लेने के लिए,आपके प्रियजन कितनी मानसिक विडम्बना में आ जाते हैं. इस विषय के आपके विचारों के दस्तावेज,जीवित वसीयत,उन्नत स्वस्थ्य निर्देश,या दस्तावेजीकरण का कोई अन्य रूप,या कानूनी संभावित परिणाम,आपके सामने उलझन न खड़ी करें, ये दस्तावेजीकरण केवल एक सरल विचारों की अभिव्यक्ति है,ताकि आपके परिजन ऐसा कठिन निर्णय ले सकें. भारतीय परिवारों में किसी भयंकर बीमारी या मृत्यु के बारे में चर्चा करना निषेद है.